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    शाला

    प्रेम गीत, नं० ९४, पाब्लो नेरुदा

    अगर मैं मर जाऊँ, मुझे जीवित रखना एक पवित्र ऊर्जा की तरह

    जो जगा सके ठंड और जर्द के आवेश को 

    और प्रकाशित करना अपनी अमिट आँखो को, 

    दक्षिण से दक्षिण तक, सूर्य से सूर्य तक,

    जब तक कि तुम्हारा मुख झनक ना उठे सितार की तरह 

    मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी मुस्कुराहटें और क़दम डगमगाए,

    नहीं चाहता कि मेरी ख़ुशियों की जागीर ख़त्म हो जाए।

     मेरे सिने में आवाज़ ना दो, मैं वहाँ नहीं हूँ

     मेरी अनुपस्थिति में तुम उसी तरह जीना, जैसे एक घर में जिया जाए

    अनुपस्थिति कितना बड़ा घर है ना,

    कि तुम दीवारों को पकड़ के घूमोगी 

    और तस्वीरों को पारदर्शी हवाओं में टाँगोगी।

     

    अनुपस्थिति भी कैसी पारदर्शी घर है ना 

    मैं मरकर भी मैं तुम्हारा जीना देखूँगा 

    और अगर तुम तकलीफ़ में होगी, 

    मैं एक बार फिर मर जाऊँगा।

    तुम्हें प्यार करने से पहले, प्यार, कुछ मेरा नहीं था 

    मैं लड़खड़ता था सड़कों पर चीज़ों के बीच 

    कुछ भी ज़रूरी ना था, ना कोई नाम था 

    दुनिया सिर्फ़ हवा थी, जो इंतज़ार में थी 

    मैं सिर्फ़ ख़ाक से भरे कमरों को जानता था 

    सुरंगे जहाँ चाँद रहता था 

    निर्मम गोदान जिनने रुकने ना दिया 

    और सवाल जिनको ज़मीन में इसरार किया 

    सब कुछ ख़ाली था, मरा  हुआ और शांत 

    पथभ्रष्ट, बेफ़िक्र और नष्ट 

    सब कुछ अपरिहार्य  और अपरिचित था 

    सब कुछ दूसरों का था पर किसी का नहीं 

    जब तक कि  तुम्हारी सुंदरता और तुम्हारी कमी ना थी 

    जिसने वसंत को अनगिनत उपहारों से भर दिया।